मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009

मैं स्वयं महिमावंत हूँ|


बाहर की महिमा छोड़ ;वहाँ क्या है ? इसलिए पर की महिमा और आकर्षण छोड़कर एक बार परम ब्रह्म प्रभु निज आत्मा की महिमा लाकर अपने ज्ञान उपयोग को वहाँ जोड़ दे तो तेरी चार गति का भ्रमण मिट जायेगा
प्रथम तो मैं ज़रा भी पर का (अन्य का) नहीं और अन्य भी मेरा तनिक भी नहीं कारण कि सब ही द्रव्य तत्वत: पर के साथ समस्त सम्बन्ध से रहित है ; इसलिए इस षट द्रव्यात्मक विश्व में मेरी निज आत्मा से अन्य कोई भी मेरा नहीं

पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

स्वाधीनता ही सुख है



अपनी स्वाधीनता की बात जब तक रूचि में नहीं बैठे ,तब तक स्वभाव की सनमुखता नहीं हो सकती , और तब तक आत्मा का हित भी नहीं होता .......! हे जीव अभी भी वक्त है ...|
 
पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

मंगलवार, 27 जनवरी 2009

होता स्वयं जगत परिणाम

क्रमबद्ध को मानते ही फेरफार (बदलाव) करने की दृष्टि छूट जाती हैं सामान्य द्रव्य पर दृष्टि जाती ही है , यही पुरुषार्थ है ....! करने फरने का है ही कहाँ ? करुँ करुँ की दृष्टी ही छोडनी है और अपने ज्ञायक भाव से जोड़नी है | मनुष्य भव में यही एक काम करने योग्य है ......!!!! पर द्रव्य का तो कुछ करने की बात ही नहीं किंतु स्वयं की असुद्ध और शुद्ध पर्यायें भी स्वकाल में क्रमबद्ध जो होने योग्य हो वोही होती हैं | इसलिए स्वयं में भी पर्याय को बदलने का रहता नहीं ...! मात्र जैसी होती हैं वैसी जानने का ही रहा ...!!!! वास्तव में तो उस समय में हुई वह पर्याय अपने षट्कारक से स्वतंत्र परिणामित हुई है | पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

मैं जानने वाला हूँ



आबाल -गोपाल सब ही वास्तव में जानने वाले को ही जानते हैं | लेकिन इसको जानने का जोर दिखता नहीं , इससे यह राग, द्वेष,पुस्तक,वाणी हैं इसलिए मुझे इनका ज्ञान होता है , ऐसा इसका जोर (झुकाव) पर में ही जाता है , श्रद्धा में अपने
ज्ञान सामर्थ्य का विश्वास ही नहीं आता | इस कारण से वास्तव में जानने वाला ही जानता है ज्ञान से ही ज्ञान होता है यह इसको बैठता नहीं ..!  
विकृत (विपरीत) भावः से अपने को भेद ज्ञान द्वारा भिन्न अनुभवना बस यह ही करना योग्य है बाकी तो सब पर वस्तु भिन्न ही हैं ..!  
पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी

बुधवार, 21 जनवरी 2009

परिणाम - परिणाम स्वतंत्र और क्रमबद्ध है



निर्मल परिणाम हो अथवा कि मलिन परिणाम वह उसके स्वकाल में ही होता है , वह परिणाम के उत्पन्न होने का जन्मक्षण है | वास्तव में जो कुछ भी होता है उसके तुम जानने वाले हो करने वाले नहीं अत: ऐसा कैसे और क्यों होता है ? इसका प्रश्न ही कहाँ है ...!!
पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी

मंगलवार, 20 जनवरी 2009

आत्मा और शरीर अत्यन्त भिन्न हैं



भगवान् आत्मा केवलज्ञान की मूर्ती है और यह शरीर तो जड़ -धूल है मिट्टी है शरीर को आत्मा का स्पर्श ही कहाँ है !!
पूज्य गुरुदेव कानजी स्वामी

सोमवार, 19 जनवरी 2009

ज्ञायक ही कारण परमात्मा है



विकारीपन (विकारत्व) तो आत्मा में नहीं किंतु अल्पज्ञता भी वास्तव में आत्मा में नही ..., पहली ही चोट में सिद्धत्व की स्थापना जो करेगा उसको ही सम्यक दर्शन होता है | आत्मा तो त्रिकाली ध्रुवस्वभाव परम पारनामिक भावः ही आत्मा है . संवर निर्जरा मोक्ष पर्याय में भी आत्मा नहीं उपादेय नहीं उपादेय तो कारण परमात्मा ही है ||  
जिसको दुःख का नाश करना हो उसको प्रथम क्या करना ? पर तरफ के विकल्पों को छोड़कर , राग का प्रेम तोड़कर उपयोग(ज्ञान) को अन्दर जोड़ना ...!!!! तीन लोक के नाथ सर्वज्ञ के पास भी हित की कामना रखना यह भी भ्रम है | शुभ अशुभ भाव का प्रसंग आवे तो भी उससे भिन्न रहकर " मैं तो ज्ञाता ही हूँ " |  
पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी

शनिवार, 17 जनवरी 2009

भगवान् स्वरुप



जैसे अरिहंत और सिद्ध भगवान् हैं ऐसा ही मैं हूँ , ऐसी दो की समानता शुद्ध-अस्तित्व का विश्वास के जोर है !! प्रभु मेरे तुम सब बातें ही पूरा पर की आस करे क्या प्रीतम ! तू किस बात अधूरा ...!!

सिद्ध भगवान् जानने वाले देखने वाले हैं ऐसे ही तुम भी जानने वाले देखने वाले हो ! पूरे अधूरे का प्रश्न ही कहाँ है ! अपने जानने वाले देखने वाले स्वरुप से खिसक कर जो तुम कर्तत्व में ही रुक गए हो इसलिए ही सिद्ध भगवान् से अलग हो !

पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

मैं ही परमात्मा हूँ



सब परिणमन श्रेणीबद्ध है , इसलिए तुम तो मात्र जानने वाले हो पूर्ण जाननहार इसमें विकार और अपूर्णता क्या ? ! एक रूप परिपूर्ण ही हो ! ........ परिपूर्ण परमात्मा हो !!!!!
मैं ही परमात्मा हूँ ऐसा स्वीकार कर !

राग की क्रिया करने वाले क्या वो तुम हो ? अज्ञान- और राग का कर्तत्व अपने को सौपना ही अज्ञान- और मिथ्या भ्रम है ...! " सर्वोत्कृष्ट ही परमात्मा कहा जाता है और वह तो तुम स्वंय ही हो " !!! मैं ही परमात्मा हूँ ऐसा स्वीकार कर !  
पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी

बुधवार, 14 जनवरी 2009

भगवान् आत्मा




अनंत सिद्धों को तेरी पर्याय में स्थापित किया है , अब तेरा चार गति में रुलना नहीं रहेगा ,अब तुम अल्पज्ञ भी नहीं रह सकोगे अपने सर्वज्ञ स्वभाव से ही तुम सर्वज्ञ हो जाओगे |  


सभी जीव साधर्मी हैं विरोधी कोई नहीं सर्व जीव पूर्णानंद को प्राप्त हो ! कोई जीव अपूर्ण ना रहो कोई जीव विपरीत दृष्टिवंत ना रहो !  
पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी

मंगलवार, 13 जनवरी 2009

स्वभाव का लक्ष्य ही आदरणीय है



आत्म स्वभाव के लक्ष्य वाला जीवन ही आदरणीय है , इसके सिवाय दूसरा जीवन आदरणीय गिनने में आया नहीं | विकल्प में स्वयं का अस्तित्व मानने से और महातम्य भाव से ही मिथ्यात्व है |
पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी

सोमवार, 12 जनवरी 2009

जिन स्वरूपी प्रभु हो तुम

जो जिनेन्द्र है वैसा ही मैं हूँ ऐसा मनन करो ; अरे.. रे.. रे.. मैं अल्पज्ञ हूँ मेरे में ऐसी कोई ताकत होती होगी ?? ये बात रहने दे भाई !! मैं पूर्ण परमात्मा होने लायक हूँ --- ऐसा भी नहीं किंतु मैं तो पूर्ण परमात्मा अभी ही हूँ ऐसा मनन करो !! आहा .. हां... ! पूज्य गुरुदेव कानजी स्वामी

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हिन्दी उर्दू में कविता गीत का सृजन |