मंगलवार, 27 जनवरी 2009
होता स्वयं जगत परिणाम
क्रमबद्ध को मानते ही फेरफार (बदलाव) करने की दृष्टि छूट जाती हैं सामान्य द्रव्य पर दृष्टि जाती ही है , यही पुरुषार्थ है ....! करने फरने का है ही कहाँ ? करुँ करुँ की दृष्टी ही छोडनी है और अपने ज्ञायक भाव से जोड़नी है | मनुष्य भव में यही एक काम करने योग्य है ......!!!! पर द्रव्य का तो कुछ करने की बात ही नहीं किंतु स्वयं की असुद्ध और शुद्ध पर्यायें भी स्वकाल में क्रमबद्ध जो होने योग्य हो वोही होती हैं | इसलिए स्वयं में भी पर्याय को बदलने का रहता नहीं ...! मात्र जैसी होती हैं वैसी जानने का ही रहा ...!!!! वास्तव में तो उस समय में हुई वह पर्याय अपने षट्कारक से स्वतंत्र परिणामित हुई है | पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी
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6 टिप्पणियां:
aapne bilkul sahi aur saarthak baat likhi hai.
स्वामी जी का ज्ञान यूँ ही अपने ब्लॉग द्वारा सबको बांटते रहे।
bilkul sahi likha apne.
अद्भुत है यह ब्लॉग ! ज्यादा कुछ कहना ठीक नहीं!
यहाँ बस डूब जाना ही ठीक है , खो जाना ही ठीक है |
कभी कभी मेरे खिलवाड़ देखने भी आ जाया कीजिये !
ap ke vichar bohot sundar he.............aap ke vicharo se sanjay ji ko moksh prapt hoga
ap ke vichar bohot sundar he.............aap ke vicharo se sanjay ji ko moksh prapt hoga
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